8. किस प्रकार जीव जनन करते हैं
प्रजनन या जनन :- एक ही जाति के वर्तमान जीवों से नए जीवों का
उत्पन्न होना प्रजनन या जनन कहलाता है।
प्रजनन की आवश्यकता :- मानव
प्राणियों द्वारा प्रजनन सुनिश्चित करता है की मानव जाति आने वाले सम्पूर्ण समय के लिए इस पृथ्वी पर
लगातार बनी रहेगी।
प्रजनन के प्रकार
जीवित जीवों में प्रजनन की दो मुख्य विधियाँ है :-
1.
अलैंगिक प्रजनन
2.
लैंगिक प्रजनन
अलैंगिक प्रजनन :- एकमात्र जनक से नए जीव का
उत्पन्न होना अलैंगिक प्रजनन कहलाता है। जैसे :- अमीबा में
द्विखंडन , हाइड्रा में मुकुलन, प्लैनेरिया में पुनर्जनन आदि।
लैंगिक प्रजनन :- दो जनकों से नए जीव का
उत्पन्न होना लैंगिक प्रजनन कहलाता है। जैसे :- मानव, कुत्ता, बिल्ली आदि लैंगिक प्रजनन द्वारा जनन करते है।
Ø
अधिकांश पुष्पी पौधें भी
लैंगिक प्रजनन द्वारा प्रजनन करते है।
अलैंगिक प्रजनन की विधियाँ
अलैंगिक प्रजनन निम्नलिखित विशिष्ट विधियों द्वारा होता है।
1.
विखंडन :- अनेक एक कोशिकीय जीव कोशिका
विभाजन के दौरान दो समान अर्द्धों में केवल विभक्त होकर नए जीवों को
उत्पन्न करते है। यह विखंडन कहलाता है।
·
विखंडन की प्रक्रिया में, एक कोशिक जीव विखण्डित होकर दो या अधिक नए जीवों
को उत्पन्न करता है।
विखंडन दो प्रकार का होता है : द्वि-विखण्डन और बहु-विखण्डन।
a)
द्वि-विखंडन :- द्वि-विखंडन में जनक जीव विखंडित अथवा विभाजित
होकर दो नए जीवों को उत्पन्न करता है। जैसे -
अमीबा एवं पैरामीशियम जैसे जीव इस विधि द्वारा प्रजनन करते है।
अमीबा में द्वि-विखण्डन
अमीबा कोशिका जब परिपक़्व अवस्था में होता है तब अमीबा का केन्द्रक लंबा होता है और दो भागों में विभाजित होता है। उसके बाद अमीबा का कोशिका द्रव्य दो भागों में ,प्रत्येक केन्द्रक के चारों ओर, विभाजित होता है। इस प्रकार एक जनक अमीबा विभाजित होकर दो नयी संतति उत्पन्न करता है।
पैरामीशियम में द्वि-विखंडन
पैरामीशियम भी द्वि-विखंडन की विधि
द्वारा प्रजनन करता है। पूर्ण विकसित पैरामीशियम अपने शरीर को दो भागों में विभाजित करके दो छोटे
पैरामीशियम उत्पन्न करता है। यह केन्द्रक के विभाजन
और पीछे से कोशिका द्रव्य के विभाजन द्वारा होता है।
b)
बहु-विखंडन :- बहु-विखंडन में जनक जीव विखंडित होकर एक ही समय
पर कई नए जीवों को उत्पन्न करता है। जैसे :- प्लैज़्मोडियम
प्लैज्मोडियम में बहु-विखंडन
इसमें एक कोशिक जीव की कोशिका के चारों ओर सिस्ट बन जाती है। सिस्ट के भीतर कोशिका का केन्द्रक बार-बार विभाजित होकर कई संतति केन्द्रक बनाता है। प्रत्येक संतति केन्द्रक के के चारों और कोशिका द्रव्य भी एकत्रित हो जाता है तथा उनके चारों ओर पतली झिल्लियाँ बन जाती है। इस तरह सिस्ट के भीतर बनी संतति कोशिकाएं अनुकूल परिस्थितियों में सिस्ट के फट कर खुलने से मुक्त हो जाती है तथा नए जीवों में परिवर्तित हो जाती है।
2. मुकुलन :-
मुकुलन में जनक जीव के शरीर का छोटा-सा भाग 'मुकुल' के रूप में उभरता है जो बाद में अलग हो जाता है और नया जीव बन जाता है। जैसे -
हाइड्रा।
हाइड्रा में मुकुलन
हाइड्रा में कोशिकाओं के सूत्री विभाजन के दौरान उसके शरीर पर एक मुकुल नामक उभार बनता है। यह मुकुल धीरे-धीरे बड़ी होकर मुख तथा स्पर्शकों का विकास कर लघु हाइड्रा बन जाती है। और अन्ततः यह नया हाइड्रा जनक हाइड्रा से अलग होकर जीवन यापन करता है। इस तरह जनक हाइड्रा एक नए हाइड्रा को उत्पन्न करता है।
यीस्ट में मुकुलन
यीस्ट, मुकुलन द्वारा प्रजनन करता है। यीस्ट में पहले कोशिका भित्ति पर बाहर की ओर एक मुकुल उभरती है। जनक यीस्ट कोशिका का केन्द्रक दो भागों में विभाजित होकर एक केन्द्रक मुकुल के भीतर चला जाता है। यह मुकुल जनक यीस्ट कोशिका से अलग हो जाती है और नयी यीस्ट कोशिका बनाती है। यीस्ट में मुकुलन इतनी तेज गति से होता है की पहली मुकुलों में उनकी अपनी मुकुलन बनने लगती है और ये सभी जनक यीस्ट कोशिका से जुडी रहकर यीस्ट कोशिकाओं की एक श्रृंखला बनाती है। कुछ समय के बाद श्रृंखला की सभी यीस्ट कोशिकाएं एक-दूसरे से अलग हो जाती है और अलग-अलग यीस्ट पौधै बनाती है।
3. बीज निर्माण (बीजाणु समसंघ)
:-
बीजाणु निर्माण में जनक पौधा बीजाणु नामक सैकड़ों सूक्ष्म प्रजनक
इकाइयों को उत्पन्न करता है। जब पौधें का बीजाणु आवरण फटता है तो बीजाणु वायु में
फ़ैल जाते है। जब ये वायु-वाहित बीजाणु अनुकूल परिस्थितियों (जैसे आर्द्र, और गरम परिस्थितयों ) में, वे अंकुरित होते है और नए पौधों को उत्पन्न
करते है। जैसे -राइजोपस
राइजोपस (ब्रेड फफूँद पौधा) में बीजाणु निर्माण द्वारा प्रजनन
राइजोपस में उपस्थित बीजणुधानी में अनेक सैकड़ों सूक्ष्म बीजाणु होते है। जब बीजाणुधानी का आवरण (बीजाणु चोल) फटता है तो नन्हें या सूक्ष्म बीजाणु वायु में बिखर जाते है। ये बीजाणु अलैंगिक जनन इकाइयाँ होती है जो अनुकूल परिस्थितियों में और भी पौधौं को उत्पन्न कर सकते है।
4. पुनर्जनन
पूर्ण जीव को, उसके शारीरिक भागों से पुनः
प्राप्त करने की प्रक्रिया पुनर्जनन कहलाती है। जैसे -प्लैनेरिया इसी विधि द्वारा
प्रजनन करता है।
प्लैनेरिया में पुनर्जनन
प्लैनेरिया एक चपटा कृमि है जो अलवण तालाबों और मंद गतिमान नदियों में पाया जाता है। यदि प्लैनेरिया का शरीर किसी तरह कई खण्डों में कट जाता है तो प्रत्येक शरीर खंड सभी अविद्यमान भागों का विकास करके पूर्ण प्लैनेरिया में पुनर्जनित हो सकता है। प्लैनेरिया कृमि से तीन प्लैनेरिया कृमि उत्पन्न होते है।
5. खंडन
प्रौढ़ होने पर सरल बहुकोशिक जीव के शरीर का दो (या अधिक) भागों में
अलग होना,
जिनमें से प्रत्येक बाद में
विकसित होकर पूर्ण नया जीव बनाता है।, खंडन कहलाता है। जैसे -
स्पाइरोगाइरा खंडन द्वारा प्रजनन कर सकते है।
स्पाइरोगाइरा में खंडन
स्पाइरोगाइरा एक हरा, तन्तुमय शैवाल पौधा है जो तालाबों, झीलों और मंद गतिमान नदियों में पाया जाता है। स्पाइरोगाइरा तन्तु परिपक्वन पर आसानी से दो या अधिक खण्डों में टूट जाता है और प्रत्येक खण्ड तब नए स्पाइरोगाइरा में विकसित हो जाता है।
Note :-विखण्डन एवं खण्डन के बीच प्रमुख भिन्नता यह है कि
विखंडन में, एक कोशिक जीव टूटकर दो या
अधिक संतति जीवों को बनाता है जबकि खंडन में बहुकोशिक जीव खण्डों में अलग होकर दो
या अधिक संतति जीवों को बनाता है।
6. कायिक प्रवर्धन
कायिक प्रवर्धन प्रजनन की एक अलैंगिक विधि है। कायिक प्रवर्धन में नए
पौधै किसी भी जनन अंग की सहायता के बिना, पुराने पौधौं के भागों
(जैसे जड़,
तना, और पत्तियाँ) से प्राप्त किये जाते है।
Ø
ब्रायोफाइलम पौधों को या तो
उसके तने के टुकड़े या उसकी
पत्तियों का उपयोग करके कायिक प्रवर्धन द्वारा किया जा सकता है।
v
आलू-कंद को, आलू-पौधों के कायिक प्रजनन के लिए प्रयोग किया जा
सकता है। एक आलू-कंद में, उसके काय पर कई कलिकाएँ
होती है। ये कलिकाएँ कायिक प्रजनन अंगों के रूप में कार्य करती है। जब आलू-कंद को
जमीन में बोया जाता है तो आलू-कंद की विभिन्न कलियाँ उगना प्रारम्भ कर देती है और
नए आलू के पौधों को उत्पन्न करती है।
पौधों का कृत्रिम प्रवर्धन
मानव-निर्मित विधियों द्वारा एक पौधें से कई पौधों को उत्पन्न करने
का प्रक्रम, पौधों का कृत्रिम प्रवर्धन
कहलाता है। पौधों के कृत्रिम प्रवर्धन के लिए तीन सामान्य विधियाँ है :
1.
कर्तन-लगाना :- जैसे गुलाब, गुलदाउदी, गन्ना, अंगूर आदि।
2.
दाब-लगाना :- जैसे चमेली, स्ट्राबेरी, नीबू, अमरुद आदि।
3.
कलम-बाँधना :- जैसे सेब, आड़ू, खूबानी, नाशपाती आदि।
कृत्रिम कायिक प्रवर्धन के लाभ :-
§
कृत्रिम कायिक प्रवर्धन के
मुख्य लाभ निम्न है -
§
उत्पन्न नए पौधें पूर्ण रूप
से जनक पौधों के समान होते है।
§
इस विधि से उत्पन्न पौधों
में पुष्प व फल काम समय में लगने लग जाते है।
§
बीजों से उत्पन्न पौधों की
तुलना में इन्हें कम देख रेख की आवश्यकता होती है।
§
ऐसे पौधें जिनमें बीज
उत्पन्न करने की क्षमता खत्म हो चुकी है जैसे-केला, गुलाब, चमेली आदि में। ऐसे पौधों को उगाने के लिए ये विधि
काफी उपयोगी है।
ऊतक संवर्धन
उपयुक्त उत्पादन माध्यम (संवर्धन विलयन नामक) में पौधें के वर्धमान अग्रभागों
से विलगित पादप ऊतक (या कोशिकाओं) के छोटे टुकड़े से नये पौधों का उत्पादन, ऊतक संवर्धन कहलाता है।
ऊतक संवर्धन तकनीक :-
इस प्रक्रिया में पादप के वर्धमान भागों जैसे पादप के शीर्ष से
कोशिकाओं को पृथक कर उन्हें कृत्रिम पोषक माध्यम पर रखा जाता है। जहाँ कोशिकाएं
विभाजित होकर कैलस निर्माण करती है। कैलस को अब वृद्धि हार्मोनों युक्त अन्य
माध्यम में रखा जाता है। इस माध्यम में जड़े व प्ररोह का विकास हो जाता है। अब इन
नन्हे पादपकों को भूमि में लगा दिया जाता है। जहां ये विकसित होकर नए पौधें बनाते
है।
ऊतक संवर्धन के लाभ :-
§
ऊतक संवर्धन से पादप ऊतक की
अल्प मात्रा से कुछ ही सप्ताहों में हजारों पादपकों को उत्पन्न किया जा सकता है।
§
ऊतक संवर्धन से उत्पन्न नये
पौधें रोगमुक्त होते है।
§
ऊतक संवर्धन द्वारा किसी भी
मौसम में पौधें उपजा सकते है।
§
ऊतक संवर्धन द्वारा नये
पौधों का विकास करने के लिए बहुत थोड़े स्थान की आवश्यकता होती है।
लैंगिक प्रजनन
लैगिक प्रजनन में शामिल कोशिकाएं युग्मक कहलाती है। युग्मक दो प्रकार के होते है : नर
युग्मक एवं मादा युग्मक। लैंगिक प्रजनन में, नर युग्मक, मादा युग्मक के साथ संलयित
होकर युग्मनज नामक नयी कोशिका बनाता है।
यह युग्मनज बढ़ता है और समय पर नए जीव में विकसित होता है।
पुष्पी पादपों में लैंगिक प्रजनन
पुष्प की संरचना
पुष्प के मुख्य भाग है : पुष्पधर, बाह्यदल, दल या पंखुड़ियाँ, पुंकेसर और अंडप। फूल(पुष्प) के मुख्य भागों को नीचे चित्र में
दिखाया गया है।
1.
पुष्पधर : पुष्प का आधार जिससे पुष्प के सभी भाग लगे होते
है , पुष्पधर कहलाता है।
2.
बाह्यदल : पुष्प के बाहरी चक्र में हरे, पत्ती-नुमा भाग, बाह्यदल कहलाते है।
3.
दल या पंखुड़ियाँ : पुष्प के रंगीन भाग दल या
पंखुड़ियाँ कहलाते है। दलों का कार्य कीटों को आकर्षित
करना (परागण के लिए) तथा जनन अंगों, जो फूल के केंद्र पर होते है, की रक्षा करना है।
4. पुंकेसर : यह पौधें का नर जनन अंग है।
पुंकेसर का वृन्त, तन्तु कहलाता है तथा
पुंकेसर का फूला शीर्ष परागकोष कहलाता
है। पुंकेसर का परागकोष ही परागकणों को उत्पन्न करता है।
v
परागकणों में, पौधें के नर युग्मक होते है।
5.
अंडप(स्त्रीकेसर) : यह पौधें का मादा जनन अंग होता है। अंडप तीन
भागों का बना होता है।
a. वर्तिकाग्र : अंडप का शीर्ष भाग वर्तिकाग्र कहलाता है। यह
पुंकेसर के परागकोष से परागकणों को ग्रहण करने के
लिए होता है। वर्तिकाग्र चिपचिपा होता है जिससे परागकण उससे चिपक सकता है।
b.
वर्तिका : अंडप का मध्य भाग वर्तिका कहलाता है। वर्तिका एक
नलिका होती है जो वर्तिकाग्र को अंडाशय से जोड़ता है।
c.
अंडाशय : अंडप के आधार पर फूला भाग अंडाशय कहलाता है।
अंडाशय के बीजांडो में पौधें के मादा युग्मक होते है।
परागण : पुंकेसर के परागकोष से परागकणों का, अंडप के वर्तिकाग्र को स्थानान्तरण, परागण कहलाता है। परागण कीटों(जैसे मधुमक्खियों और
तितलियों), चिड़ियों, पवन और जल द्वारा किया जाता है।परागण दो तरीकों से
हो सकता है : स्व-परागण एवं पर-परागण।
1.
स्व-परागण : जब पुष्प के परागकोष से परागकण उसी पुष्प (या उसी पौधें के दूसरे पुष्प) के वर्तिकाग्र को
स्थानान्तरित होते है तो यह स्व-परागण कहलाता है।
2.
पर-परागण : जब एक पौधें पर पुष्प के परागकोष से परागकण, दूसरे समान पौधें पर पुष्प के वर्तिकाग्र को स्थानान्तरित होते है तो यह पर-परागण कहलाता है।
Question: कीट पर-परागण में किस प्रकार सहायक है ?
Answer: कीट जब मकरंद चूसने के लिए पौधें के पुष्प पर
बैठता है तो इस फूल के परागकोष से परागकण उसके
शरीर से चिपक जाते है। और जब यह कीट अब दूसरे समान पौधें के दूसरे फूल पर बैठता है तो उसके शरीर से
चिपके परागकण इस दूसरे फूल के वर्तिकाग्र को
स्थानांतरित हो जाते है। इस प्रकार कीट पर-परागण में सहायक है।
निषेचन
जब परागण की प्रक्रिया सम्पन्न हो जाती है तो परागकण से परागनली निकलती है। यह नली वर्तिका से
होती हुई अंडाशय में बीजाण्ड तक पहुँचकर उसमें
प्रवेश करती है। अब परागनली का अग्रभाग फटकर नर युग्मक को मुक्त कर देता है। यह नर युग्मक बीजाण्ड
में उपस्थित मादा युग्मक या अण्डाणु से संयोग कर
युग्मनज बनाता है। नर एवं मादा युग्मकों के संयोग से युग्मनज बनने की इसी प्रक्रिया को निषेचन कहते
है।
फलों व बीजों का बनना
निषेचन के बाद बीजाण्ड के भीतर बना युग्मनज कई बार विभाजित होकर भ्रूण का निर्माण करता है। धीरे-धीरे बीजाण्ड के चारों ओर कठोर आवरण बनाकर बीज का निर्माण करता है। पुष्प का अण्डाशय फल के रूप में परिवर्धित हो जाता है। बीज अनुकूल परिस्थितियों में अंकुरित होकर नए पादप का निर्माण करता है।
प्राणियों में लैंगिक प्रजनन
नर और मादा :-
शरीर में शुक्राणु नामक नर लिंग
कोशिकाओं वाला प्राणी नर कहलाता है। दूसरी ओर, शरीर में अंडाणु नामक मादा
लिंग कोशिकाओं वाला प्राणी मादा कहलाता है।
युग्मक :-
लैंगिक प्रजनन में शामिल कोशिकाएँ
युग्मक कहलाती है। प्राणियों में नर युग्मक 'शुक्राणु' कहलाता है और प्राणियों में मादा युग्मक 'अंडाणु' कहलाता है।
निषेचन :-
लैगिक प्रजनन के दौरान नर युग्मक का मादा युग्मक के साथ संलयन होकर
युग्मनज बनाना, निषेचन कहलाता है।
आंतरिक निषेचन :- निषेचन जो मादा शरीर के
भीतर संपन्न होता है, आंतरिक निषेचन कहलाता है। आंतरिक निषेचन स्तनधारियों (मानव
प्राणियों सहित), पक्षियों और सरीसृपों में होता है।
बाह्य निषेचन :- निषेचन जो मादा शरीर के बाहर संपन्न होता है, बाह्य निषेचन कहलाता है।
उभयचरों(जैसे मेंढकों और टोडों) तथा मछलियों में ,बाह्य निषेचन होता है।
v
बाह्य निषेचन में, नर और मादा प्राणी अपने
शुक्राणुओं और अण्डों को जल में छोड़ते है जहाँ शुक्राणुओं एवं अण्डों के बीच टक्करों द्वारा निषेचन सम्पन्न
होता है।
भ्रूण :- युग्मनज और नये बने शिशु के बीच विकास की अवस्था, भ्रूण कहलाती है।
किस प्रकार प्राणियों में
लैंगिक प्रजनन सम्पन्न होता है
प्राणियों में लैंगिक प्रजनन निम्न चरणों में
सम्पन्न होता है :
1. नर जनन शुक्राणु नामक नर
युग्मकों को उत्पन्न करता है। शुक्राणु , गति करने के लिए एक लंबी
पूँछ युक्त सूक्ष्म कोशिका होती है।
2. मादा जनक अण्डाणु नामक मादा युग्मकों को उत्पन्न करता
है। अण्डाणु काफी अधिक कोशिकाद्रव्य युक्त, शुक्राणु से काफी बड़ी कोशिका होती है।
3.
शुक्राणु, अण्डाणु में प्रवेश करता है और उसके साथ संलयित
होकर युग्मनज नामक नयी कोशिका बनाता है। यह
प्रक्रिया निषेचन कहलाती है। इसलिए, युग्मनज एक निषेचित अण्डाणु
होता है।
4. युग्मनज इसके बाद बारम्बार विभाजित होकर बड़ी संख्या में
कोशिकाएँ बनाता है। और आखिरकार युग्मनज बढ़ता है और
नये शिशु में विकसित होता है ।
यौवनारम्भ :-
आयु जिसमें लिंग हार्मोनों (या युग्मकों) का उत्पन्न होना प्रारम्भ
हो जाता है तथा बालक और बालिका लैंगिक रूप से परिपक्व (प्रजनन करने योग्य) हो जाते
है, यौवनारम्भ कहलाता है।
§
सामान्यतः बालकों में
यौवनारम्भ 13 से 14 वर्षों की आयु में होता है जबकि बालिकाओं में
यौवनारम्भ अपेक्षाकृत 10 से 12 वर्षों की कम आयु में होता है। यौवनारम्भ होने पर, वृषण नामक नर जनन ग्रंथियाँ शुक्राणु नामक नर
युग्मकों को उत्पन्न करना प्रारम्भ कर देती है और अण्डाशय नामक मादा जनन ग्रंथियां
अंडाणु नामक मादा युग्मक उत्पन्न करना प्रारम्भ कर देती है। यौवनारम्भ के प्रारम्भ
होने के साथ लिंग हार्मोन भी स्रावित होने लगते है। वृषण, टेस्टेस्टेरोन नामक नर लिंग हार्मोन उत्पन्न करते
है और अण्डाशय, दो लिंग हार्मोन एस्ट्रोजन
एवं प्रोजेस्टेरोन स्रावित करते है।
यौवनारम्भ पर बालकों में होने वाले विभिन्न
परिवर्तन :-
1.
बगलों और जाँघों के बीच जघन
क्षेत्रों में बाल निकलते है।
2.
मूँछ एवं दाढ़ी का निकलना।
3.
शरीर, पेशियों के विकास के कारण हट्टा-कट्टा हो जाता है।
4.
आवाज गंभीर हो जाती है।
5.
सीना और कंधे चौड़े हो जाते
है।
6.
शिशन एवं वृषण बड़े हो जाते
है।
7.
वृषण,शुक्राणओं को बनाना प्रारम्भ कर देते है।
यौवनारम्भ पर बालिकाओं में होने वाले विभिन्न
परिवर्तन है :-
1.
बगलों और जाँघों के बीच जघन
क्षेत्रों में बाल निकलते है।
2.
स्तन-ग्रंथियाँ विकसित होती
है और बढ़ जाती है।
3.
शरीर के विभिन्न भागों जैसे
कूल्हे और जाँघों में अतिरिक्त वसा जमा हो जाती है।
4.
अंडवाही नालियाँ, गर्भाशय और योनि बढ़ जाते है।
5.
अंडाशय अंडों को मुक्त करना
प्रारम्भ कर देते है।
6.
रजोधर्म प्रारम्भ हो जाता
है।
मानव नर जनन तंत्र
मानव नर जनन तंत्र निम्नलिखित भागों का बना होता है -
1. वृषण :- ये संख्या में 2 होते है। इनका कार्य नर युग्मक
या शुक्राणुओं का निर्माण करना है। ये नर जनन हार्मोन टेस्टेस्टेरोन का भी निर्माण
करता है।
2. शुक्रवाहिकाएं :- वृषणों में बने शुक्राणुओं को शुक्रवाहिकाओं
द्वारा ले जाया जाता है। प्रत्येक वृषण से शुक्रवाहिका निकलकर मूत्राशय से आने
वाले मूत्रमार्ग से मिल जाती है।
3. शुक्राशय एवं प्रोस्टेट
ग्रंथि :- इन दोनों ग्रंथियों से
निकलने वाला स्राव शुक्राणुओं से मिलकर उन्हें पोषण प्रदान करता है तथा उन्हें तरल
माध्यम प्रदान करता है जिससे शुक्राणुओं का स्थानान्तरण सुगमता से होता है।
4. शिशन :- यह एक पेशीय अंग है जो मूत्रमार्ग से आने वाले
शुक्राणुओं को मादा की योनि में छोड़ते है। इस प्रकार मानव शरीर में मूत्र एवं
शुक्राणुओं को शरीर के बाहर छोड़ने के लिए एक ही निकास द्वार होता है।
मानव मादा जनन तंत्र
मानव मादा जनन तंत्र निम्नलिखित मुख्य भागों का बना होता है -
1.
अण्डाशय :- ये संख्या में 2 होते है। इनका कार्य मादा
युग्मक या अण्डाणुओं का निर्माण करना है। ये मादा जनन हार्मोन एस्ट्रोजन एवं
प्रोजेस्टेरोन का भी निर्माण करते है।
2.
अण्डवाहिनियां या फैलोपियन
टयूब :- इनके कीप जैसे सिरे
अण्डाशयों को लगभग ढके रहते है। अण्डाशय द्वारा मुक्त किया गया अण्डाणु, अण्डवाहिनियों द्वारा ही आगे ले जाया जाता है।
मानव में निषेचन की क्रिया भी अण्डवाहिनी में ही सम्पन्न होती है।
3. गर्भाशय :- दोनों तरफ की अण्डवाहिनियां अपने दूसरे सिरे पर
थैले जैसे अंग, गर्भाशय से जुडी होती है।
निषेचन के बाद शिशु का विकास गर्भाशय में ही सम्पन्न होता है।
4. योनि :- गर्भाशय, गर्भाशय ग्रीवा के द्वारा
योनि नामक अंग में खुलता है। योनि वह स्थान है जहाँ नर से शुक्राणु ग्रहण किए जाते
है। योनि,
योनि द्वार के द्वारा बाहर
खुलती है।
मानव में निषेचन प्रक्रिया
मानव में आंतरिक निषेचन होता है। मादाओं में प्रत्येक एक अण्डाशय, अण्डाणु करता है। जो अण्डवाहिनी में आ जाता है।
मैथुन के दौरान करोड़ों की संख्या में शुक्राणु नर द्वारा मादा की योनि में छोड़े
जाते है। इनमें से केवल एक ही शुक्राणु मादा के अण्डाणु से जुड़कर निषेचन की
प्रक्रिया पूर्ण कर पाता है। निषेचन की प्रक्रिया अण्डावाहिनी में सम्पन्न होती
है। निषेचन के बाद बना युग्मनज गर्भाशय में आकर गर्भाशय की भित्ति से जुड़ जाता है।
इस प्रक्रिया को आरोपण(अंत: रोपण) कहते है। कुछ समय के बाद गर्भाशय की भित्ति एवं
भ्रूण के मध्य एक डिस्कनुमा विशिष्ट ऊत्तक विकसित होता है। जो अपरा या प्लेसेन्टा
कहलाता है। भ्रूण एवं माँ के बीच पोषकों, ऑक्सीजन एवं अपशिष्ट
उत्पादों का आदान-प्रदान अपरा के द्वारा ही होता है।
गर्भावधि :- निषेचन से शिशु के जन्म लेने तक की समयावधि, गर्भावधि कहलाती है। मानव में यह अवधि 280 दिन अर्थात लगभग 9 माह की होती है।
मादाओं में रजोधर्म
या ऋतुस्राव
मादाओं में अण्डोत्सर्ग से पूर्व, गर्भाशय का आंतरिक अस्तर
मोटा एवं स्पंजी हो जाता है। तथा यह रुधिर केशिकाओं से भर जाता है। ऐसा इसलिए होता
है ताकि अंडाणु के निषेचित हो जाने के की स्थिति में उसके विकास हेतु पोषण एवं
ऑक्सीजन की आपूर्ति की जा सके। किन्तु यदि अण्डाणु निषेचित नहीं हो पाता है तो
गर्भाशय का यह मोटा व स्पंजी आंतरिक अस्तर रुधिर केशिकाओं एवं मृत अण्डाणु के साथ
टूटकर योनि से बाहर निकलने लगता है। इसी स्राव को ऋतुस्राव या रजोधर्म कहते है।
मादाओं में यह चक्र प्रत्येक 28 दिनों के बाद दोहराया जाता
है। तथा इसकी अवधि 2 से 8 दिनों की होती है।
·
50 वर्ष की उम्र के आसपास
स्त्रियों में रजोधर्म बंद हो जाता है इसे रजोनिवृति कहते है।
गर्भनिरोधन एवं इसकी विभिन्न विधियां
स्त्रियों में सगर्भता का निरोध, गर्भ निरोधन कहलाता है।
जनसंख्या के नियंत्रण या परिवार नियोजन हेतु गर्भनिरोधन आवश्यक है। इसकी प्रमुख
विधियां निम्नवत है -
1. रोधिका विधियां या यांत्रिक
विधियां - पुरुषों द्वारा उपयोग किये
जाने वाले कण्डोम एवं स्त्रियों द्वारा उपयोग किये जाने वाले डायफ्राम या कैप, रोधिका विधियों के मुख्य उदाहरण है। इन विधियों
द्वारा शुक्राणु का अण्ड से मिलान रोक दिया जाता है। इन विधियों का एक अन्य मुख्य
लाभ यौन प्रदत्त रोग जैसे सुजाक, सिफलिस तथा एड्स से सुरक्षा
प्रदान करना भी है।
2.
रासायनिक विधियां - इनमें स्त्रियों द्वारा ली जाने वाली 2 तरह की गोलियां शामिल की जाती है -
i. ऑरल पिल्स - ये मुख से ली जाने वाली गोलियां है। इनमें
हार्मोन्स होते है जो अंडाशयों को अण्ड मुक्त करने से रोकते है। लेकिन ये गोलियां
स्त्रियों में हार्मोन असंतुलन भी उत्पन्न कर देती है।
ii. वेजाइनल पिल्स - ये योनि में रखने वाली गोलियां है। जो
शुक्राणुमारक होती है।
3. अंत: गर्भाशयी गर्भनिरोधक
युक्तियां - इनमें कॉपर-टी जैसी
युक्तियाँ शामिल है। कॉपर-टी गर्भाशय के भीतर रखी जाती है। यह गर्भाशय में निषेचित
अण्ड के आरोपण को रोकती है।
4. शल्य विधियां - यह दो प्रकार की होती है -
i. पुरुष नसबन्दी - इसमें शुक्रवाहिनियों को काटकर उसके दोनों सिरों
को बांध दिया जाता है। इससे शुक्राणुओं का बाहर आना रूक जाता है।
ii. स्त्री नसबन्दी - इस प्रक्रिया में
अण्डवाहिनियों को काटकर उसके दोनों सिरों को बांध दिया जाता है। इससे अंडाणु को अण्डवाहिनी में प्रवेश रोक दिया जाता है।
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