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Monday, 26 April 2021

vigyaan

\[\begin{aligned}x^{2}-9=0\\ x^{2}=9\\ x=\sqrt{9}=\pm 3\end{aligned} \]

Tuesday, 11 October 2016

नियंत्रण एवं समन्वयन

7. नियंत्रण एवं समन्वयन
वातावरण में परिवर्तन जिनके प्रति जीव प्रतिक्रिया दिखाते है और सक्रीय रहते है, उद्दीपक कहलाते है। जैसे-प्रकाश,गर्मी, सर्दी, ध्वनि, गंध,स्पर्श,दाब,जल,तथा गुरुत्व-बल आदि।
समन्वयन :- उद्दीपक के प्रति उचित प्रतिक्रिया उत्पन्न करने के लिए किसि जीव के विभन्न अंगों का परस्पर सुसंगठित ढंग से कार्य करना, समन्वयन कहलाता है।
पौधों में नियंत्रण एवं समन्वयन
पौधें हार्मोनों के प्रयोग द्वारा वातावरणिक परिवर्तनों के प्रति अपने व्यवहार को समन्वित करते है। पौधों में हार्मोन, पौधें की वृद्धि को प्रभाविओट करके उनके व्यहवार को समन्वित करते है। और पौधें  की वृद्धि पर प्रभाव का परिणाम पौधें के किसी अंग जैसे प्ररोह (तना) अथवा जड़ ,इत्यादि की गति में हो सकता है।
पादप हार्मोन्स
पादप हार्मोन पौधें के विकास के किसी एक अथवा दूसरे पहलू को नियंत्रित करके पौधें के क्रियाकलापों को समन्वित करते है।
पादप हार्मोन ,प्रमुख रूप से चार प्रकार के होते है :-
1.      ऑक्सिन्स :- यह कोशिका वृद्धि,कोशिका विभाजन एवं फल वृद्धि को प्रोत्साहित करता है। तने का प्रकाश की ओर मुड़ना या प्रतान(टेंड्रिल) आधार के चारों ओर वृद्धि करना इसी हार्मोन की वजह से होता है।
2.      जिबरेलिन्स :- यह तने की वृद्धि तथा बीजों व कलिकाओं की प्रसुप्ति को तोड़ने में सहायता करता है।
3.      साइटोकाइनिन :- यह हार्मोन पादप में कोशिका विभाजन को प्रोत्साहित करता है।
4.      एब्सिसिक अम्ल :- यह वृद्धिरोधी हार्मोन है जो बीजों व कलिकाओं में प्रसुप्ति को बढ़ाता है। यह पत्तियों के मुरझाने व गिरने को बढ़ाता है साथ ही पादप से फूलों व फलों के पृथक्करण का भी कारण बनता है।
पादप गतियाँ
आक्सिन हार्मोन के अग्रभाग पर मेरिस्टमी उत्तक द्वारा बनाया एयर स्रावित किया जाता है। ऑक्सिन हार्मोन ताने में वृद्धि को तेज करता है। यदि तने में एक तरफ दूसरी तरफ की अपेक्षा अधिक ऑक्सिन होता है , तो अधिक ऑक्सिन हार्मोन वाला तने का पक्ष दूसरे पक्ष (कम ऑक्सिन हार्मोन वाला) की अपेक्षा तेजी से बढ़ेगा। इसके कारण तना झुक जायेगा। और जब तना एक ओर झुकता है तो हम कहते है की तना गति प्रदर्शित कर रहा है।
अनुवर्तन (या अनुवर्तनी गतियाँ)
किसी बाहरी उद्दीपक के प्रति अनुक्रिया में पौधें के किसी भाग की गति जिसमें उद्दीपन की दिशा अनुक्रिया की दिशा को निर्धारित करती है , अनुवर्तन कहलाता है।
अनुवर्तन के प्रकार
1.      प्रकाशानुवर्तन :- प्रकाश की अनुक्रिया में पौधें के किसी भाग की गति प्रकाशानुवर्तन कहलाता है।
i.                धनात्मक प्रकाशानुवर्तन :- यदि पौधें का भाग प्रकाश की ओर बढ़ता है ,वह धनात्मक प्रकाशानुवर्तन कहलाता है। जैसे - तने का प्रकाश की ओर मुड़ना।
ii.                  ऋणात्मक प्रकाशानुवर्तन :- यदि पौधें का भाग प्रकाश से दूर हटता है तो यह ऋणात्मक प्रकाशानुवर्तन कहलाता है। जैसे :- पौधें की जड़ों का प्रकाश से दूर गति करना।
              Image result for phototropism diagram
उपरोक्त चित्रानुसार जब सूर्य का प्रकाश ऊपर से आता है ,तो तने के अग्रभाग में उपस्थित ऑक्सिन हार्मोन तने में नीचे तक एक समान रूप से फ़ैल जाता है। ऑक्सिन की एक समान उपस्थिति के कारण, पौधें के दोनों पाशर्व समान तेजी से बढ़ते है। और तना सीधा ऊपर की ओर बढ़ता है।
जब प्रकाश तने के केवल दायें पाशर्व पर पड़ता है तो ऑक्सिन हार्मोन प्रकाश से दूर तने के बायें पाशर्व में एकत्रित होता है। कारण यह है की ऑक्सिन हार्मोन छाया में रहना चाहते है। अधिक ऑक्सिन होने के कारण तने का बायाँ पाशर्व तेजी से बढ़ता है इसलिए तना दायीं ओर झुकता है।
अतः पौधें का तना प्रकाश के प्रति अनुक्रिया दिखाता है और ऑक्सिन हार्मोन की क्रिया के कारण उसकी ओर झुकता है।
2.      गुरुत्वानुवर्तन :- गुरुत्व के प्रति पौधें की अनुक्रिया गुरुत्वानुवर्तन कहलाती है। 
i.                    धनात्मक गुरुत्वानुवर्तन :- गुरुत्व की दिशा में पौधें के भाग की गति धनात्मक गुरुत्वानुवर्तन कहलाती है। जैसे -जड़ों का सदैव भूमि में नीचे की ओर बढ़ना। 
ii.                  ऋणात्मक गुरुत्वानुवर्तन :- गुरुत्व की दिशा के दिशा के विपरीत पौधें के भाग की गति ऋणात्मक गुरुत्वानुवर्तन कहलाता है। जैसे -तने का सदैव भूमि से ऊपर की ओर बढ़ना। 
              
प्रयोग :- उपरोक्त चित्रानुसार स्थिति (a) में पौधें को सामान्य स्थिति में रखने पर उसकी जड़ें नीचे की ओर बढ़ रही है और उसका तना ऊपर की ओर बढ़ रहा है। स्थिति (b) के अनुसार पौधे के जड़ें तथा तना दोनों ही भूमि के समानांतर रहते है। कुछ दिनों के बाद देखने पर हम पाते है की गमले के पौधे की जड़ें नीचे भूमि की ओर मुड़ जाती है और पौधें का तना भूमि से दूर, ऊपर  मुड़ जाता है। अतः पौधे की जड़ें गुरुत्व के प्रति अनुक्रिया में नीचे की ओर बढ़ती है तथा तना ऊपर की ओर बढ़ता है। 
3.     रसायनानुवर्तन :- रसायनों के प्रति पादप अनुक्रिया रसायनानुवर्तन कहलाती है। जैसे - उद्दीपक के रूप में शर्करी पदार्थ द्वारा प्रभावित बीजांड की ओर परागनलिका की वृद्धि रसायनानुवर्तन का एक उदाहरण है।
4.     जलानुवर्तन :- जल के प्रति पादप अनुक्रिया जलानुवर्तन कहलाती है। जैसे- पादप मूल का सदैव जल की दिशा में बढ़ना। 
     
प्रयोग:- चित्रानुसार पात्र (A) में मिट्टी को एक-समान जल दिया जाता है जिस कारण पौधें की जड़ दोनों तरफ से जल पाती है। परन्तु पात्र (B) में जड़ मिट्टी के बर्तन से बाहर रिसने वाला जल पाती है। इसलिए पात्र (B) में पौधें की जड़ बढ़ती है तथा जल के स्रोत की ओर मुड़कर जलानुवर्तन को प्रदर्शित करती है
5.      स्पर्शानुवर्तन :- स्पर्श के प्रति पादप की दिशात्मक अनुक्रिया स्पर्शानुवर्तन कहलाती है। जैसे- प्रतान द्वारा दुर्बल तने के पादपों का आरोहण। 
                                    
  • टेंड्रिलों(प्रतानों) में कोशिकाएं होती है जो निकट की ठोस वस्तु के स्पर्श की अनुभूति कर सकती है। इसलिए जब प्रतान किसी वस्तु को स्पर्श करता है तो वस्तु के साथ संपर्क में प्रतान का पाशर्व उसके दूसरे पाशर्व की अपेक्षा धीरे बढ़ता है। इससे प्रतान वस्तु की ओर मुड़ जाता है और उसकी ओर बढ़कर वस्तु के चारों लिपट जाता है और उससे चिपक जाता है। आरोही पौधें के टेंड्रिल की लपेटन गति, स्पर्शानुवर्तन एक उदाहरण है। 
अनुकुंचन (या अनुकुंचनी गतियाँ)
किसी बाहरी उद्दीपक के प्रति अनुक्रिया में पौधे के भाग की गति जिसमें उद्दीपक की दिशा द्वारा अनुक्रिया की दिशा निर्धारित नहीं होती है, अनुकुंचनी गति कहलाती है। 
अनुकुंचन मुख्यतः दो प्रकार का होता है :-
1.      स्पर्शानुकुंचन:- किसी वस्तु के स्पर्श के प्रति अनुक्रिया में पौधें के भाग की गति,स्पर्शानुकुंचन कहलाती है। जैसे- स्पर्श करने पर छुई-मुई पौधें की पत्तियों का मुड़कर बंद होना। 
                                
  • स्पर्श करने पर छुई-मुई पौधें की पत्तियों का बंद होना, छुई-मुई पौधें की सभी पत्तियों के आधार पर उपस्थित पल्विनि नामक गद्दी-नुमा फुलाव से एकाएक जल की हानि के कारण होता है जिससे पल्विनि अपनी सुदृढ़ता खो देते है और पत्तियाँ झुक जाती है और लटक जाती है। 
2.      प्रकाशानुकुंचन:- प्रकाश की अनुक्रिया में पौधें के भाग की अदिशात्मक गति, प्रकाशानुकुंचन कहलाती है। जैसे- डैन्डेलीऑन फूल प्रातः काल तीव्र प्रकाश में खिलता है परंतु सायंकाल में, जब प्रकाश कम हो जाता है और अँधेरा हो जाता है, बंद हो जाता है।
प्राणियों में समन्यवन
कशेरुकी (मानव प्राणियों सहित) नामक उच्चतर प्राणियों में नियंत्रण तथा समन्वयन तंत्रिका तंत्र तथा अन्त: स्रावी तंत्र नामक हार्मोनी तंत्र के द्वारा होता है।
ग्राही:-ग्राही,ज्ञानेन्द्रिय में एक कोशिका (या कोशिकाओं का समूह) होती है जो विशेष प्रकार के उद्दीपन जैसे प्रकाश,गर्मी,दाब,इत्यादि के प्रति संवेदी होती है।
तंत्रिका तंत्र की इकाई : तंत्रिका कोशिका
हमारे तंत्रिका तंत्र की यह एक क्रियात्मक एवं संरचनात्मक इकाई है। जिसके मुख्य रूप से तीन भाग होते है :
                        
कोशिका काय :- यह एक प्रारूपिक जंतु कोशिका के जैसी होती है। जिसमें कोशिका द्रव्य व एक केन्द्रक पाया जाता है। कोशिका काय से तंत्रिका तंतु निकले होते है।
द्रुमिकाएँ :- कोशिका काय से निकलने वाले ये छोटे तंत्रिका तंतु है जो तंत्रिका आवेग को कोशिका काय तक लाते है।
तंत्रिकाक्ष :- कोशिका काय से जुड़े ये लंबे तंत्रिका तंतु होते है जो कोशिका काय से तंत्रिका आवेगों को दूर ले जाते है। तंत्रिकाक्ष पर माइलिन आच्छद नामक एक आवरण चढ़ा रहता है।
तंत्रिका कोशिका के कार्य :-
तंत्रिका कोशिका, शरीर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक संवेदनाओं का संवहन करती है।
तंत्रिका कोशिका द्वारा संवेदनाओं या सूचनाओं का संवहन :- तंत्रिका कोशिका में सूचनाओं का संवहन एक विधुत रासायनिक क्रिया है। इस क्रिया में सूचनाएं विधुत आवेग के रूप में होती है। ये आवेग द्रुमिकाओं द्वारा ग्रहण कर कोशिका काय तक लाए जाते है। फिर कोशिका काय से तंत्रिकाक्ष द्वारा आगे बढ़ा दिए जाते है। तंत्रिकाक्ष के अंतिम सिरे पर कुछ रासायनिक पदार्थों का स्रवण होता है। जो सिनैप्स के रिक्त स्थान को पार कर अगली तंत्रिका कोशिका के द्रुमिका में विधुत आवेग उत्पन्न करते है। इस प्रकार सूचनाओं का आगे संवहन होता है।

अन्तर्ग्रन्थन (सिनेप्स) :- निकटवर्ती तंत्रिकाकोशिकाओं की जोड़ी के बीच अतिसूक्ष्म रिक्त स्थान जिसके पार तंत्रिका आवेगों को एक तंत्रिका कोशिका से अगली तंत्रिका कोशिका को पहुँचाया जाता है ,अन्तर्ग्रन्थन (सिनेप्स) कहलाता है। 
मानव तंत्रिका तंत्र के भाग
मानव तंत्रिका तंत्र को दो मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है :-
1.      केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (मस्तिष्क तथा मेरुरज्जु से बना) , और 
2.      परिधीय तंत्रिका तंत्र (शरीर की सभी तंत्रिकाओं जैसे कपाल तंत्रिकाओं, मेरु तंत्रिकाओं और आन्तरांग तंत्रिकाओं के बना) 
परिधीय तंत्रिका तंत्र को और भी भागों में विभाजित किया जा सकता है :-
        i.            ऐच्छिक तंत्रिका तंत्र (जो मस्तिष्क से ऐच्छिक नियंत्रण में होता है)
      ii.            स्वायत्त तंत्रिका तंत्र (जो यंत्रवत अथवा अनैच्छिक रूप से कार्य करता है)
प्रतिवर्ती क्रिया और प्रतिवर्ती चाप
किसी उद्दीपन के प्रति तत्काल व बिना सोचे समझे अभिव्यक्त होने वाली अनुक्रिया जो मस्तिष्क के ऐच्छिक नियंत्रण में नहीं होती, प्रतिवर्ती क्रिया कहलाती है। जैसे :- गरम प्लेट के छू जाने पर तत्काल हाथ का हट जाना या नुकीली वस्तु पर पैर पड़ जाने पर पैर का हटना। 
किसी ग्राही द्वारा प्राप्त संवेदना, संवेदी तंत्रिका कोशिका में तंत्रिका आवेग पैदा करती है। यह तंत्रिका आवेग, मेरुरज्जु को सुचना पहुँचाता है। मेरुरज्जु द्वारा इस सम्बन्ध में तय की गयी अनुक्रिया, प्रसारण तंत्रिका कोशिका द्वारा प्रेरक तंत्रिका कोशिका को बढ़ा दी जाती है। अब यह अनुक्रिया प्रेरक तंत्रिका कोशिका के द्वारा सम्बन्धित अंग की पेशी को बढ़ा दी जाती है। सम्बन्धित पेशी सिकुडकर,अनुक्रिया को व्यक्त करती है। 
वह मार्ग जिसके साथ-साथ तंत्रिका आवेग गमन करता है, प्रतिवर्ती चाप कहलाता है। 
तंत्रिका आवेग द्वारा पेशीय संचलन किस प्रकार होता है ?
किस प्रकार पेशियाँ क्रिया या गति उत्पन्न करती है ?
Ans:-पेशियां, पेशी कोशिकाओं की बानी होती है। पेशी कोशिकाओं में विशिष्ट प्रोटीनें होती है जो जब तंत्रिका आवेगों द्वारा उद्दीपत की जाती है तो सिकुड़ जाती है। पेशी कोशिकाओं के सिकुड़ने से पेशियां भी सिकुड़ जाती है। जब पेशियां सिकुड़ती है तो वे शरीर के अंग की अस्थियों पर खिंचाव डालती है और उसे गतिशील बनाती है।
प्रतिवर्ती क्रिया और उसका मार्ग (प्रतिवर्ती चाप) दर्शाने के लिए उदाहरण :-
उद्दीपन के प्रति जिस तरह हम अनुक्रिया दिखाते है, गर्म वस्तु (जैसे गर्म प्लेट) छूने पर हमारी प्रतिक्रिया प्रतिवर्ती क्रिया का एक उदाहरण है। यहाँ उद्दीपन ऊष्मा या ताप है जिसे हम गर्म प्लेट छू जाने पर अपने हाथ में महसूस करते है। इस ताप या ऊष्मा को,हमारे हाथ में ऊष्माग्राही द्वारा महसूस किया जाता है। ग्राही, संवेदी तंत्रिकोशिका में आवेग उत्पन्न करता है, जो मेरुरज्जु को सूचना भेजता है। यहाँ, आवेग आगे प्रसारण तंत्रिकोशिका को बढ़ाया जाता है, जो बाद में,इसे प्रेरक तंत्रिकोशिका को बढ़ा देता है। प्रेरक तंत्रिकोशिका हमारी बाँह में पेशी को आवेग बढ़ा देता है। पेशी तब सिकुड़ती है और हमारे हाथ को गर्म प्लेट से दूर खींच लेती है।
स्वायत्त तंत्रिका तंत्र :- स्वायत्त तंत्रिका तंत्र हमारे शरीर के आंतरिक अंगों की क्रियाओं को अनजाने ही (अपने आप) नियंत्रित एवं विनियमित करता है। जैसे :-पाचन, हृदयस्पंदन आदि। 
ऐच्छिक तंत्रिका तंत्र:- ऐच्छिक तंत्रिका तंत्र, ऐच्छिक क्रियाओं को जो मस्तिष्क के सचेतन नियंत्रण में होती है, करने में हमारी सहायता करता है। जैसे :-मित्र से बातचीत करना, पत्र लिखना , साइकिल चलना आदि।  
मानव मस्तिष्क
मस्तिष्क हमारी खोपड़ी में कपाल नामक अस्थियों के बॉक्स में सुरक्षित रहता है। यह मस्तिष्कावरण नामक तीन झिल्लियों से घिरा होता है। जिनके मध्य प्रमस्तिष्क मेरुद्रव नामक तरल भरा रहता है जो बाहरी आघातों से मस्तिष्क की सुरक्षा करता है। मस्तिष्क मोटे तौर पर तीन भागों में बंटा होता है :-
                                   
1.      अग्र मस्तिष्क :- यह मुख्य रूप से प्रमस्तिष्क का बना होता है। यह ज्ञान, तर्क, बुद्धि, चिंतन, स्मृति का स्थान है। इसी भाग से विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों से संवेदनाएं ग्रहण की जाती है। शरीर की सभी ऐच्छिक क्रियाएं भी प्रमस्तिष्क द्वारा नियंत्रित की जाती है।
2.    मध्य मस्तिष्क :- यह दृष्टि व श्रवण उद्दीपनों की अनुक्रिया के फलस्वरूप सिर, गर्दन व धड की प्रतिवर्ती क्रियाओं को नियंत्रित करता है। साथ ही नेत्र पेशियों की क्रियाओं, नेत्र लेंस के आकार व आकृति में परिवर्तनों को भी नियंत्रित करता है।
3.      पश्च मस्तिष्क :- इसके मुख्य भाग पॉन्स, अनुमस्तिष्क व मेडूला है।
i.                    पॉन्स - यह नियंत्रण में सहायक है।
ii.                  अनुमस्तिष्क - यह शरीर के आसन व संतुलन को बनाए रखने में सहायक है। यह कुछ क्रियाओं जैसे पैदल चलना, नृत्य करना, साइकिल चलाना, पेन्सिल पकड़ना आदि को भी समन्वित करता है।
iii.                मेडूला - यह विभिन्न अनैच्छिक क्रियाओं जैसे ह्रदय धड़कना, आहारनाल की क्रमांकुचन गतियां, खाँसना, छीकना, लार बनना, उल्टी या वमन आदि को भी नियंत्रित करता है।
हार्मोन्स
हार्मोन्स वे रासायनिक पदार्थ होते है जो जीवधारियों की क्रियाओं और उनकी वृद्धि को भी समन्वित करते है।
हार्मोन्स की विभिन्न विशेषताओं को नीचे दिया गया है :-
i.                    हार्मोनों को अन्त: स्रावी ग्रंथियों द्वारा सूक्ष्म मात्राओं में स्रावित किया जाता है।
ii.                  हारमोन सीधे रक्त में मिलते है और रुधिर परिवहन तंत्र द्वारा शरीरभर में ले जाये जाते है।
iii.                हार्मोन विशिष्ट ऊतकों तथा अंगों पर क्रिया करते है।
iv.                हार्मोन, शरीर की क्रियाओं तथा उसकी वृद्धि को भी समन्वित करते है।
अन्त: स्रावी तंत्र
अन्त: स्रावी ग्रन्थियों का एक समूह जो विभिन्न हार्मोनों को उत्पन्न करता है, अन्त: स्रावी तंत्र कहलाता है।
1.      पीयूष ग्रंथि :- यह ग्रंथि मस्तिष्क के ठीक नीचे पायी जाती है। वृद्धि हार्मोन का स्रवण करती है। इस हार्मोन की कमी से व्यक्ति बौना रह जाता है किन्तु अधिकता से व्यक्ति दानवाकार हो जाता है। 
2.      अवटु या थाइराइड ग्रंथि :- यह ग्रंथि शवासनली से होती है। इससे थाइरॉक्सिन हार्मोन स्रावित किया जाता है। जो शरीर में कार्बोहाइड्रेट, वसा व प्रोटीन के उपापचय को नियंत्रित करता है। इस हार्मोन के बनने के लिए भोजन में आयोडीन आवश्यक होता है। भोजन में आयोडीन की कमी से यह ग्रंथि सूजकर घेंघा या गलगण्ड रोग उत्पन्न कर देती है। 
3.      ग्रंथि :- यह ग्रंथि आमाशय के ठीक पायी जाती है। तथा इन्सुलिन हार्मोन स्रावित करती है। जो रक्त में शर्करा स्तर को नियंत्रित करता है। इन्सुलिन हार्मोन की कमी से रक्त व मूत्र में शर्करा का स्तर बढ़ जाता है। इसे मधुमेह या डायबिटीज रोग कहते है। गंभीर अवस्था में इस रोग के ईलाज में इन्सुलिन का टीका लगाया जाता है। 
4.      एड्रीनल ग्रंथि :- ये संख्या में दो होती है जो दोनों वृक्कों के ऊपर पायी जाती है। इन्हें संकटकालीन ग्रंथियां भी कहते है। एड्रीनल ग्रंथि से स्रावित होने वाला हार्मोन एड्रिनलीन हार्मोन कहलाता है। यह ह्रदय धड़कन, शवास दर, रक्तचाप एवं कार्बोहाइड्रेट उपापचय को नियंत्रित व नियमित करता है। यह हार्मोन हमे संकटकालीन परिस्थितियों से लड़ने के लिए हमारी दर व ह्रदय धड़कन को बढ़ा देता है। फलस्वरूप हमें इन परिस्थितियों से लड़ने के लिए बड़ी मात्रा में ऊर्जा प्राप्त हो जाती है। 
5.      वृषण :- यह नरों में पायी जाने वाली नर जनन ग्रंथि है जो टेस्टोस्टेरोन नामक हार्मोन स्रावित करती है। यह  हार्मोन नर लैंगिक अंगों एवं नर गौण लैंगिक लक्षणों के विकास को नियंत्रित करता है। 
6.      अण्डाशय :- यह मादाओं में पायी जाने वाली मादा जनन ग्रंथि है जो एस्ट्रोजन एवं प्रोजेस्टेरोन नामक हार्मोन स्रावित करती है। एस्ट्रोजन हार्मोन मादा लैंगिक अंगों एवं मादा गौण लैंगिक लक्षणों के विकास को नियंत्रित करता है। वहीं प्रोजेस्टेरोन हार्मोन का कार्य मासिक चक्र एवं गर्भाशय में परिवर्तनों को नियंत्रित करना है। 
पुनर्निवेशन या पुनर्भरण क्रिया विधि (Feedback Mechanism) :-
विभिन्न ग्रंथियों द्वारा निर्मुक्त हार्मोनों के समय और मात्रा को पुनर्निवेशन प्रक्रिया द्वारा नियंत्रित किया जाता है जो हमारे शरीर में अन्त: रचित होती है। जैसे :- यदि रक्त में शर्करा स्तर काफी बढ़ जाता है तो उसका की कोशिकाओं द्वारा पता लगा लिया जाता है जो रक्त में अधिक इन्सुलिन उत्पन्न करके और स्रावित करके अनुक्रिया दिखाते है। और जैसे ही रक्त शर्करा एक निश्चित स्तर तक आ जाती है तो इन्सुलिन का स्रावण अपने-आप कम हो जाता है। 
Question :- संवेदी पौधे की पत्तियों की गति, प्रकाश की ओर प्ररोह की गति से किस प्रकार भिन्न है ?
Answer:- संवेदी पौधे की पत्तियों की गति और प्रकाश की ओर प्ररोह की गति के बीच मुख्य भिन्नता निम्न प्रकार है :-
संवेदी पौधें की पत्तियों की गति
प्रकाश की ओर प्ररोह की गति
1.      यह एक अनुकुंचनी गति है जो प्रयुक्त उद्दीपक की दिशा पर निर्भर नहीं होती है।
2.      उद्दीपक स्पर्श है।
3.      यह, पत्तियों के आधार पर फुलावों से जल की एकाएक हानि के द्वारा होता है।
4.      यह वृद्धि गति नहीं है।
1.      यह अनुवर्ती गति है जो प्रयुक्त उद्दीपक की दिशा पर निर्भर करती है।
2.      उद्दीपक प्रकाश है।
3.      यह प्ररोह के दो पार्श्वों पर असमान वृद्धि के द्वारा होता है।
4.      यह वृद्धि गति है। 

Question:- ढंग जिसमें संवेदी पौधें में गति होती है और हमारी टांगों में गति होती है, के बीच भिन्नता क्या है ?

Answer:- संवेदी पौधें की पत्तियों में गति, सभी पत्तियों के आधार पर गद्दी-नुमा फुलावों (पल्विनि नामक) में एकाएक जल की हानि के कारण होती है। जल की हानि पल्विनि को ढीला(लचीला) कर देती है जिससे पत्तियों का लटकना और बंद होना होता है। दूसरी ओर , हमारी टाँगों में गति होती है जब टाँग की पेशियाँ, टाँग की हड्डियों पर खिंचती है।